यदि कोई साधु दुष्कर्म करते हुये पकड़ा जाता है, तो उस साधक की पुनः दीक्षा नहीं होनी चाहिए: आचार्य श्री प्रसन्न सागर जी महाराज- कुछ तीखे , कड़वे , पर सोने से खरे स्पष्ट विचार

0
827

12 जून 2022/ जयेष्ठ शुक्ल त्रियोदिशि /चैनल महालक्ष्मी और सांध्य महालक्ष्मी/

तथाकथित साधु दुष्कर्म करके सम्पूर्ण दिगम्बरत्व को लजा रहे हैं और भीष्म पितामह की तरह बड़े बड़े आचार्य – विद्वान मूकदर्शक बन देख रहे और सुन रहे हैं।

95% बड़े बड़े साधु-साध्वी-समयसारी-पट्टाचार्य जैसे ज्ञानी साधु सन्त दिन भर वीडीयो कॉल पर आशीर्वाद दे रहे हैं, कोई फेसबुक पर, तो कोई वॉट्सएप पर लगे हुये हैं।

मूर्तियों का दान उनके लिये वरदान है जो नित्य जिनाभिषेक, पूजा, पाठ, देव दर्शन करते हैं अन्यथा आप अपने हाथों से अपने पैर पर कुल्हाड़ी पटक रहे या कोड़ में खाज जैसा पुण्य बढ़ा रहे हैं।

चोट करना भी बहुत जरूरी है..अन्यथा पत्थर परमात्मा कैसे बनेगा..!

तपस्वी मौन पूर्वक सिंहनिष्कडित व्रत करने वाले, आचार्य श्री अन्तर्मना प्रातः स्मरणीय आचार्य श्री 108 परम पूज्य प्रसन्न सागर जी महाराज की कलम से कुछ तीखे , कड़वे , पर सोने से खरे स्पष्ट विचार, आप सभी के चिंतन के लिए
कभी कभी ज्यादा तारीफ भी हमारी उन्नति में बाधक बन जाती है।
आदमी तो घर घर पैदा हो रहा है, बस इंसान और इन्सानियत कहीं कहीं जन्म लेती है।

इतिहास साक्षी है – जटायु पक्षी और भीष्म पितामह का। जब रावण सीता को लेकर जा रहा था, तब जटायु ने अपने प्राणों की परवाह किये बिना ही रावण से भिड़ गया था सीता को बचाने के लिये। इसके विपरीत देखें – जब भरी सभा में द्रौपदी का चीर-हरण हो रहा था,, उस सभा में सबसे वरिष्ठ और परम पराक्रमी भीष्म पितामह मूकदर्शक बनकर बैठे हुए थे। अपनी कुलवधू के ऐसे अपमान पर उन्हें मौन होकर नहीं मुखर होकर सामने आना चाहिए था। उन्हें भी जटायु की भान्ति अपने सामर्थ्य का प्रदर्शन कर उस दुष्कर्म को रोकने का प्रयास करना चाहिए था। भीष्म पितामह तो इतने बड़े महारथी थे कि सभा में उपस्थित सभी धुरंधरो पर अकेले ही भारी पड़ जाते।
दोनो उदाहरण हमें धर्म और कर्त्तव्य का बोध कराते हैं।

इसी प्रकार जो तथाकथित साधु दुष्कर्म करके सम्पूर्ण दिगम्बरत्व को लजा रहे हैं और भीष्म पितामह की तरह बड़े बड़े आचार्य – विद्वान मूकदर्शक बन देख रहे और सुन रहे हैं। उनसे विन्रम निवेदन मेरी सोच मेरी बात

मेरी बातें उनको हजम नहीं होगी, जो बातों के बादशाह हैं या समाज में चम्मच का काम कर रहे हैं।
यदि कोई साधु दुष्कर्म करते हुये पकड़ा जाता है, तो उस साधक की पुनः दीक्षा नहीं होनी चाहिए।
दीक्षा का प्रावधान उनके लिये होना चाहिए, जो आसाध्य रोग या बड़ी बीमारी से बचने के लिये समाज या गुरू से आज्ञा लेकर दीक्षा छोड़ते हैं, तो वह साधक पुनः प्रायश्चित लेकर मोक्ष मार्ग पर अग्रसर हो सकते हैं।
कोई भी साधु दुष्कर्म करते हुये पकड़ा जाता है, तो समाज ना उनके गुरू से पूछे, ना विद्वानो से – समाज के पंच उसे कपड़े पहनाकर या तो जेल भेज दें या आजीवन पातक लगाकर घर भेज दें। (आजीवन पातक का अर्थ है पुनः दीक्षा नहीं होना)

यदि कोई साधु किसी कारणवश स्खलित या पतित हो जाये और उनकी 3-6-10 महिने में या 1-3-5-8-10 साल बाद पुनः दीक्षा हो जाये, तो वह साधु अपनी नवीन दीक्षा काल से दीक्षा वर्ष गिनेगा,, ना कि पुरानी दीक्षा काल से।

आज ब्रह्मचारी, ब्रह्मचारिणी, पंण्डित, विद्वान और साधु सन्त समाज में चम्मच का काम कर रहे हैं। चम्मच दूसरों का पेट तो भर देती है लेकिन स्वयं खाली ही रहती है।
आज 85% त्यागी व्रती साधु संन्यासियों में ना वैराग्य दिख रहा है ना कद पद जैसा भाव, ना भावों में विशुद्धि,, सिर्फ प्रतिस्पर्धा की अंधी दौड़ में भाग रहे हैं।

10-15 वर्षों में धर्म की आड़ में, पूजा-विधान-मूर्तियों के दान के माध्यम से लाखों-करोड़ो का अच्छा व्यापर चल रहा है।
मूर्तियों का दान उनके लिये वरदान है जो नित्य जिनाभिषेक, पूजा, पाठ, देव दर्शन करते हैं अन्यथा आप अपने हाथों से अपने पैर पर कुल्हाड़ी पटक रहे या कोड़ में खाज जैसा पुण्य बढ़ा रहे हैं।

अहो आश्चर्य! — यशस्वी प्रधान मन्त्री नरेंद्र मोदी जी देश से परिवार वाद की राजनीति को खत्म कर रहे हैं और मैं देख रहा हूँ — साधु समाज में, धार्मिक संस्थाओं में, तीर्थों में बढ़ते परिवार वाद से कौन मुक्त करेगा, विचारणीय है -?

जो साधु-सन्त-साध्वी-त्यागी व्रती अपने-अपने मठ बनाकर बैठ रहे हैं, ना वो सूरज का जीवन जी रहे ना सरिता का। अब उनका जीवन तालाब के पानी सा हो गया है।
साधु – साधु नहीं रहे – साध्वी – साध्वी नहीं बची, विद्वान – विद्वान नही रहे और धनपति – धर्मात्मा नहीं बचे, सब अपने अपने पन्थ परम्पराओं के बन्धन में बंधकर कूप मण्डूप हो गये हैं।

मैं किसी पन्थ परम्परा का विरोधी नहीं हूं। मैं अपनी बात उनसे कह रहा हूं जो वीतराग मार्ग के पथिक हैं, आत्म कल्याण के लिए, या भगवान बनने के लिए जो निरन्तरता वर्धमान हो रहे हैं — वो अपने स्वाध्याय, प्रवचन में या शिक्षण में किसी पन्थ परम्परा के लिये टीका-टिप्पणी ना करे, ना सच्चा झूठा कहे, ना सम्यग्दृष्टि – मिथ्यादृष्टि कहे। आप धर्म के मर्म की बात कहें, श्रावकों को व्रत-नियम-संयम-तप-त्याग की बात कहें और अपनी चर्या का निर्दोष पालन करके अपना मोक्ष मार्ग प्रशस्त करें। अन्यथा विकृतियां कब नहीं थी, हम विकृत होने से बचें – यही मोक्ष मार्ग है।

जैन समाज के 95% बड़े बड़े साधु-साध्वी-समयसारी-पट्टाचार्य जैसे ज्ञानी साधु सन्त दिन भर वीडीयो कॉल पर आशीर्वाद दे रहे हैं, कोई फेसबुक पर, तो कोई वॉट्सएप पर लगे हुये हैं। हाँ ये अलग बात है कोई डायरेक्ट जुड़ा है तो कोई इन डायरेक्ट। परन्तु बिमारी सबको लगी है मोबाइल की।

जटायु और भीष्म पितामह का उदाहरण हमें अपनी क्षमता एवं सामर्थ्य के अनुसार उनका पर्दाफाश करें। भीष्म पितामह की तरह मूकदर्शी ना बने…!!!