जो मानते स्वयं को, सबसे बड़े हैं, वे धर्म से बहुत दूर ,अभी खड़े हैं- आचार्य श्री विद्यासागर जी

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2 सितम्बर 2022/ भाद्रपद शुक्ल षष्ठी/चैनल महालक्ष्मी और सांध्य महालक्ष्मी/
हम सब उत्तम मार्दव धर्म की आराधना करते हैं। उत्तम मार्दव धर्म अहंकार हीनता का नाम है। मन, वचन, काय से मृदु होना मार्दव है। यदि मन, वचन, काया में वक्रता है, छल- कपट है, किसी को नुकसान पहुंचाने का भाव है तो मार्दव धर्म नहीं हो सकता। मार्दव धर्म का पालन नहीं हो सकता। मार्दव गुण आत्मा का है ,इसकी रक्षा करना हमारा कर्तव्य है। आत्मा में मार्दव गुण होगा तो छल – कपट नहीं होगा। कहते हैं कि-
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाही।
प्रेम गली अति सांकरी, जामें दो न समाहिं।


निजानुभव शतक में परम पूज्य संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने लिखा है कि-
जो मानते स्वयं को, सबसे बड़े हैं।
वे धर्म से बहुत दूर ,अभी खड़े हैं।।

हमें पूज्य बनना है, पूजा करवाना हमारा लक्ष्य नहीं है। जो मनस्वी पुरुष कुल, रूप ,जाति ,बुद्धि, तप, शास्त्र और शील आदि के विषय में थोड़ा सा भी घमंड नहीं करता उसके मार्दव धर्म होता है। ऐसा वारसाणुवेक्खा में आचार्य कुंदकुंद देव कहते हैं।

एक अभिमानी राजा था और वह चाहता था कि जो भी उसे मिले उसे प्रणाम करे। एक फकीर ने उस राजा को प्रणाम करने से मना कर दिया। बोला -आप कैसे राजा हैं? यदि आपका कोई सिंहासन छीन ले, वस्त्र छीन ले, आभूषण छीन ले तो फिर आप का राजत्व कहां रहेगा?असली राजा तो मैं हूं क्योंकि मैं अपनी इच्छा का स्वामी हूं ।मैं किसी के आगे हाथ नहीं फैलाता ।मैं जो मिलता है उसमें संतोष करता हूं ।

राजा ने कहा कि तुम्हें कि तुम्हें हमें प्रणाम तो करना पड़ेगा तो उसने कहा कि मैं आपके सिंहासन को प्रणाम कर सकता हूं। आपके मुकुट को प्रणाम कर सकता हूं ,आपके वस्त्रों को प्रणाम कर सकता हूं, यहां तक कि आपके जूतों को भी प्रणाम कर सकता हूं किंतु आपको नहीं। वास्तव में व्यक्ति का अहंकार उसकी साधन संपन्नता के अहंकार से होता है। साधनहीन होने पर भी तपस्वी साधनाशील होने पर विनम्र हो जाता है ।विनय को मोक्ष का द्वार कहा है।

यह विनय सम्यक् दर्शन के प्रति, सम्यक् ज्ञान के प्रति ,सम्यक् चारित्र के प्रति और देव- शास्त्र -गुरु के प्रति होना चाहिए। इसे ही क्रमश: दर्शन विनय, ज्ञान विनय ,चारित्र विनय और उपचार विनय कहा है ।हम सब मेरी भावना का स्मरण करें ,जिसमें लिखा है –
अहंकार का भाव ना रक्खूं ,नहीं किसी पर क्रोध करूं।
देख दूसरों की बढ़ती पर ,कभी न ईर्ष्या भाव धरूं।।
रहे भावना ऐसी मेरी, सरल सत्य व्यवहार करूं ।
बने जहां तक इस जीवन में, औरों का उपकार करूं ।।

यह मार्दव धर्म मान कषाय के अभाव में होता है अतः मान से बचें, अहंकार से बचें और अपनी आत्मा को मानें, यही मार्दव धर्म है

डॉ . सुरेन्द्र जैन भारती, महामंत्री , अखिल भारतवर्षीय दिगंबर जैन विद्वत् परिषद्