जैन धर्म क्रिया आधारित या ध्यान आधारित धर्म , कहीं दिखावट बनावट और सजावट के कारण जैन धर्म ईर्ष्या का, नफरत का, निन्दा का, चिढ़ाने का कारण तो नहीं बनेंगा

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10 सितम्बर 2022/ भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा /चैनल महालक्ष्मी और सांध्य महालक्ष्मी/
आजकल बोली लेना धार्मिक होने की निशानी समझी जाने लगी है, जबकि धार्मिक होने के लिए पैसों का कोई भी महत्व नही है, क्योंकि जैन धर्म क्रिया आधारित नही ध्यान आधारित धर्म है,
ये अत्यधिक पैसा हिंसात्मक क्रियाओं को भव्यता प्रदान करने के लिए उपयोगी है क्योंकि देव द्रव्य होने से उसे मन्दिर के लिए या मंदिर से संबंधित कार्यों के लिए ही उपयोग किया जा सकता है,

मन्दिर और धार्मिक क्रियाओं से संबंधित व्यवसाय करने वालों के लिए चांदी ही चांदी,
जैन धर्म से संबंधित संघों में दिनों दिन बोलियों की रकम बढ़ती ही जा रही है,, अगर समय रहते इन रकमो के सदुपयोग पर चिंतन नही किया तो दिखावट बनावट और सजावट के कारण जैन धर्म ईर्ष्या का, नफरत का, निन्दा का, चिढ़ाने का कारण जरूर बनेंगा, क्योंकि पड़ोसी भूखा हो, और कोई उसके सामने बादाम का हलवा खाए, उचित नही है,
हम लोग न तो कोई शिक्षण संस्थाएं और न ही चिकित्सा से संबंधित हॉस्पिटल ढंग से चला पा रहे है, क्योंकि मैनेजमेंट के लिए योग्य व्यक्तियों की जगह लाभार्थियों को रखा जाता है सिर्फ़ यह एक गुण कि लाभार्थी है, उसकी बजाय गुणी जैन व्यक्तियों को पगार पर रखना चाहिए,

धार्मिक कर्म कांड क्रिया कांड से संबंधित अन्य समाज के व्यक्ति तो रूबाब करके, या ट्रस्टी की जी हुजूरी करके ज्यादा पैसे हड़प सकते है, लेकिन अपना भाई हो तो उसे योग्य पैसे देने में भी काट कसर की जाती है, ऐसा क्यो?

सेकंड वर्ल्ड वार में पूरी दुनियां से यहूदियों को भगाने में हिटलर ने इन्ही दिखावट बनावट और सजावट को कारण बताकर कहते है 20 लाख यहूदियों की गैस चेंबर में डाल डाल कर हत्या की थी, और जर्मनी ने पूरा साथ दिया था,

भोजन, धन, रूप और भजन, पर्दे में रहना चाहिए, आज ये चारो का प्रदर्शन येन केन प्रकरण बाजार में, रोड पर, सबको चिढ़ाने के लिए हो रहा है, बुद्धिमान तबका चुप है, उनका यह मौन विनाश का कारण बन सकता है, क्योंकि समाज नगण्य हो रहा है, वह खंड खंड में बंटा हुआ है, साधू संत दिनों दिन डिवाइड करने का काम कर रहे है, समाज को बदहाली में ,खंडित करने में महत्वपूर्ण रोल अदा कर स्वयं को मोक्ष के योग्य बताते है, धन्य है,

जब जागो तब सबेरा, समाज का अधिकतर हिस्सा आज भी जरुरत पूरी नही कर पा रहा है, जबकि एक वर्ग सौ करोड़ की बोली लेता है, ये विषमताएं समाज के लिए घातक हो सकती है, ऐसा मै मानता हू, आपकी क्या राय है,
के सी बागरेचा चिंतक लेखक पत्रकार
सोशल मीडिया से साभार