RSS की सभी 70 हजार शाखाओं में महावीर जीवन व उपदेश : मोहन भागवत

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विश्व के सामने बस दो ही विकल्प – महाविनाश या महावीर – आचार्य प्रज्ञ सागर
इण्डिया हारा, भारत जीता, अब विरासत-संस्कृति की सुरक्षा के हों प्रयास – आचार्य सुनील सागर

कल्याणक महोत्सव में विज्ञान भवन महावीर उपदेशों से गुंजायमान
16 फरवरी 2024/ माघ शुक्ल च अष्टमी /चैनल महालक्ष्मी और सांध्य महालक्ष्मी/शरद जैन /
आरएसएस की 70 हजार शाखाओं में अब रोजाना लाखों करोड़ों लोग नित्य स्तोत्र में भगवान महावीर को याद करते हैं। भारत की ज्ञान निधि के प्रवर्तक-उपदेशकों में भगवान महावीर भी हैं। संघ संचालक डॉ. मोहन राव भागवत के इन शब्दों से शुरू हुए उद्बोधन से विज्ञान भवन तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज गया। यह अवसर था कल्याणक महोत्सव का, जो तीर्थंकर महावीर स्वामी के 2550वें निर्वाण महोत्सव वर्ष के उपलक्ष्य में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा जैन संतों के सान्निध्य में आयोजित किया गया। उन्होंने स्पष्ट कहा कि हमारी सभी 70 हजार शाखाओं में महावीर भगवान की कहानी व उनके उपदेशों का इस 2550वें वर्ष में समावेश हो गया है।

उन्होंने कहा कि हमारे यहां धर्म अनेक हैं, पर राष्ट्र एक ही है। रास्ते जरूर अलग है पर जाना एक ही जगह है और एक ही जगह से निकले हैं। कोई एकदम महावीर नहीं बन सकता, पर एक-एक कदम तो बढ़ा ही सकते हैं। कैसे जाएंगे? ये सोचने वाले कभी चल नहीं पाते और जो चल पड़ते हैं, वो ही मंजिल पर पहुंचने का माद्दा रखते हैं। अगले वर्ष 2551वां निर्वाण महोत्सव मनाने तक हमें अनेकांतवाद, स्याद्वाद, अहिंसा, सत्य, अपरिग्रहवाद के साथ स्व निरीक्षण करें। चिंतन करें कि कौन-सी दो खराब बातें छोड़ेंगे और कौन-सी दो अच्छी बातें ग्रहण करेंगे।

सहन नहीं करना, कायर नहीं बनना, भागना नहीं, ये वो ही कर सकता है, जो परम शक्तिशाली हो, महावीर सब कर सकते थे। वे मन-वचन-काय से पूर्ण अहिंसक थे। लड़ने की भाषा वो ही करते हैं, जिनमें डर होता है, जो बलशाली होते हैं, वो समझाने की बात करते हैं। महावीरजी ने उपदेश नहीं, जी कर सिखाया। सबकी आवश्यकता पूरी करने के लिये सृष्टि में सब है, पर एक का भी लालच पूरा हो पाये, यह सृष्टि में नहीं है। यह कहते हुए मोहन भागवतजी ने स्पष्ट कहा कि अनेकांतवाद – स्याद्वाद मिलजुल कर रहना सिखाते हैं। जड़ पदार्थों से दूर रहकर शाश्वत सुख तक पहुंचाते हैं। दर्शन अलग है, पर व्यवहार व प्रस्थान एक है। एकता की विविधता ही भारत में है। आज पूरा विश्व भारत की ओर देख रहा है कि कैसे व्यवहारों, शाश्वत तत्वों के आधार पर उसने अपने को बहुत समय तक शांति, प्रेम, वैभवपूर्ण बनाए रखा। दुनिया क्रान्ति की बात करती है, हम सक्रान्ति की बात करते हैं। हम ही सही, बाकी सब गलत, आज यह प्रवृत्ति बन गई है।आज तो सत्य को जानने के लिए भी रक्तपात होते हैं।

वैदिक और श्रमण दोनों को सनातन मानते हुए उन्होंने स्पष्ट कहा कि जब ज्ञान की खोज चली, शाश्वत सुख की खोज हुई, तो धारायें मिली एक श्रमण यानि जैन और दूसरी वैदिक यानि ब्राह्मण। दुनिया में भी सत्य ज्ञान की खोज हुई, पर वो बाहर ढूंढते-ढूंढते रुक गई और भारत ने उसके बाद, अंदर भी खोज की और उस शाश्वत सत्य तक पहुंच गये। दुनिया ने केवल बाहर ही सुख देखा, पर वो टिकता नहीं है, दोबारा प्राप्त करो, भोग करो, उसके लिये बलवान बनो, बाकी पर दया करो। बाहर की दुनिया में यही सत्य होता है। बाहर जंगल का न्याय ही चलता है। वो भौतिक सुख से मोक्ष की ओर जाते तो हैं, पर मोक्ष नहीं मिलता। बाहर की जड़ दृष्टि में संघर्ष है, समन्यव नहीं, यह बाहर वाली बात में खोज अधूरी रही।

अब वक्त है विरासत और संस्कृति की सुरक्षा का – आचार्य सुनील सागर
आचार्य श्री ने सुनील सागरजी ने बंटे जैनों के घाव पर मरहम बखूबी अंदाज में लगाते हुए कहा कि –
मोहन जी के संघ ने कर दिखाया है,
महावीर के चारों बेटों को एक साथ बैठाया है।

मोहन भागवत जी के नाम की सार्थकता के साथ नियत समय में हर उस बिंदु को छुआ। ‘मोहन’ में मोहनजोदड़ों की प्राचीन संस्कृति छिपी है और ‘भागवत’ में सारे शास्त्र जुड़े हैं। उसी भागवत में आदिनाथ को अवतार माना है। और फिर वही कह दिया जिसको पूरी दुनिया को जानना जरूरी है। वही आदिनाथ-ऋषभदेव, जिनके ज्येष्ठ पुत्र चक्रवर्ती भरत के नाम पर हमारे देश का नाम भारत पड़ा। जिसको राम भ्राता भरत और दुष्यंत पुत्र भरत ने और गौरवान्वित किया।
फिर तो तालियों से पूरा हाल गूंज गया, जब उन्होंने कहा –
गुलामी की जंजीरें तोड़कर,
इण्डिया हार गया, भारत जीत गया।

उन्होंने कहा कि प्राकृत-संस्कृत जैसी प्राचीन भाषायें, ब्राह्मी जैसी प्राचीन लिपि, प्राचीन विरासतें हमारी धरोहर हैं। पाश्चात्य संस्कृति कहती है कि
विश्व एक बाजार है, जहां सबकुछ बिकता है, और इंसान को खरीदने का अधिकार है। उधर भारतीय संस्कृति कहती है – विश्व एक परिवार है, सबको यहां शांति से जीने का अधिकार है।
परस्परोग्रहो जीवानाम् का अनुवाद आज पूरे विश्व में गूंज रहा है। भारतीय संस्कृति-स्वदेश और स्वदेशी को सब प्यार करते हैं। विरासत के साथ विकास, खण्डगिरि की गुफा में प्राचीन शिलालेख में भारतवर्ष का उल्लेख है। आज विरासत-संस्कृति की सुरक्षा में और प्रयासों की आवश्यकता है। आज एकांतवाद यानि आतंकवाद और स्याद्वाद का मतलब अनेकांतवाद।

जहां संघ ने पूरे देश को जोड़ा है।
वहां मुनिसंघ ने इंसान को भगवान से जोड़ा है।।

आज दुनिया में बहुत भिखारी दिख जाएंगे, पर कोई जैन भीख मांगता नहीं दिखेगा। आज देश में दो करोड़ जैन हैं, सभी सम्पन्न हो, यह भी सही नहीं है। 20 फीसदी अमीर हैं, 50 फीसदी मध्यम, 20 फीसदी गरीब और 10 फीसदी तो गरीबी रेखा से भी नीचे हैं। पिछड़े भाइयों को शिक्षा व स्वास्थ्य के भावों से आगे बढ़ाने, उन्हें अल्पसंख्यक से जोड़ने, पुराने तीर्थों का संरक्षण करने व इण्डिया हैरिटेज से जैन तीर्थों की जानकारी अप्लोड करके प्रचार-प्रसार की भी आवश्यकता है।
वीरता से जिओ, कायरता से नहीं – डॉ. राजेन्द्र मुनि

डॉ. राजेन्द्र मुनि म.सा. ने कहा कि महावीर के जीवन और दर्शन दोनों ही मौलिक व महान रहे हैं। जैनों की गिनती चाहे कम हो, पर 40 फीसदी से ज्यादा दान में और 30 फीसदी आर्थिक मजबूत में हिस्सेदारी है। संगठन की हमारी कमी है, उसको RSS ने मजबूत कर दिखाया। मनुष्य जन्म से नहीं, कर्म से महान बनता है। हमेशा संगठित रहे, हम सब एक हैं। वीरता से जीना, कायरता से नहीं।

वैज्ञानिक, प्राचीन, उदार, सरस, व्यापक है जैन धर्म – आचार्य प्रज्ञ सागर
आचार्य श्री प्रज्ञ सागरजी ने एक स्वरचित गीत से सबको प्रफुल्लित किया, उससे पूर्व उन्होंने कहा कि जो बाहर से आये, उन्होंने हमारी संस्कृति से खूब छेड़छाड़ की। यह कल्याणक ‘क’ से प्रारंभ होता है और ‘क’ अक्षर से ही समाप्त होता है, इसका अर्थ है अपना भी कल्याण और जो आए उसका भी कल्याण। श्रमण व वैदिक – दोनों प्राचीन संस्कृति के साथ- साथ, आदान-प्रदान करते हुए चलने से आज भारत समृद्ध हुआ। आज दुनिया के पास दो ही विकल्प हैं – ‘महाविनाश’ या ‘महावीर’। महाविनाश समस्या का समाधान भी महावीर ही है। जैन धर्म में प्राचीनता, उदारता, समृद्धता, सरसता, व्यापकता है। यह न कर्तावादी है, न व्यक्तिवादी, न वस्तुवादी, न एकांतवादी, इसमें आदेश की भाषा नहीं, उपदेश की भाषा है।

आचार्य श्री विद्यानंद जी के बताये 5 महावीर सूत्रों – आत्मानुशासन, अहिंसावाद, अनेकांतवाद, अपरिग्रहवाद व स्याद्वाद को स्मरित कराते उन्होंने कहा कि महावीर ने जिओ और जीने दो, अहिंसा का विश्व में जयघोष किया। यह धर्म हर इंसान-पशु को भगवान बनाने का अधिकार देता है। भगवान महावीर हर जन-जन तक पहुंचे, जिससे यह देश विकास तक पहुंचे। इस 2550वें निर्वाण वर्ष में ढाई करोड़ पेड़-पौधे लगाये जाने का – घर-घर वाटिका, अहिंसा वाटिका की शुरूआत की है। अहिंसा रथ गांव-गांव में भ्रमण कर रहा है, 6 लाख गांवों को कवर करेगा, जिसमें अहिंसा, शाकाहार, सादा जीवन उच्च विचार की शिक्षाएं दी जाएंगी। भगवान महावीर निर्वाण महामहोत्सव समिति 2 वर्ष पहले इसी उद्देश्य से बनी थी। अंत में आचार्य श्री ने भारत देश की महानता कविता के रूप में इस प्रकार प्रस्तुत की –

मेरा देव, मेरा देश, मेरा भारत महादेश
यही समय है, सही समय है, त्यागों तुम परदेश

मेरा देव, मेरा देश, मेरा भारत महादेश।
मेरी माटी, मेरी माता, सच्चा है स्वदेश
मेरा देव, मेरा देश, मेरा भारत महादेश।
कृषि करो या ऋषि बनो तुम, ऋषभदेव उपदेश
मेरा देव, मेरा देश, मेरा भारत महादेश।
जिओ और जीने दो सबको, महावीर संदेश
मेरा देव, मेरा देश, मेरा भारत महादेश।
विकसित भारत, शिक्षित भारत, भारत ही सर्वेश
मेरा देव, मेरा देश, मेरा भारत महादेश।
भव्य भारत, नव्य भारत, बदल रहा परिवेश
मेरा देव, मेरा देश, मेरा भारत महादेश।
सबका साथ, सबका विकास, हम सबका उद्देश्य
मेरा देव, मेरा देश, मेरा भारत महादेश।

दिशाहीन, संस्कार विहीन क्यों हो रहे- साध्वी अणिमा श्री
साध्वी अणिमा श्री ने इस अवसर पर कहा कि भगवान महावीर को सीखा, समझा, पर विचार करें महावीर से क्या सीखा? उनके उपदेशों से कितनी निर्मलता स्वयं को दी। आज घर- परिवार में करुणा का स्त्रोत क्यों सूख रहा है? कल मां रोती थी, मेरा बेटा खाता क्यों नहीं? आज मां रोती है, कि मेरा बेटा खिलाता क्यों नहीं। आज समाज किस दिशा में जा रहा है? हमारा रहन-सहन कहां गया? आज सबके जीवन में जैनत्व के संस्कार उतरने चाहिए। आज असमानता बढ़ रही है। जरा-सी परिस्थिति टेढ़ी हुई, हम झुक जाते हैं। सबका आध्यात्मिक उनयन होता रहे।

न युद्ध हो, न वध हो, न हो हिंसा – साध्वी प्रीति रत्नाश्री

साध्वी प्रीति रत्ना श्री ने कहा कि परमात्मा महावीर को मानना आसान है, लेकिन महावीर का मानना कठिन है। महावीर की साधना त्याग, तप, संयम की थी। उन्होंने अहिंसा, अनेकांतवाद, अपरिग्रहवाद का वैभव स्वीकार किया। साध्वी महाराज ने कहा राम की प्राण प्रतिष्ठा तभी सफल होगी, जब यहां कोई युद्ध ना हो, वही होती है अयोध्या। जहां किसी प्रकार का वध ना हो, वह होती है अवध।