दिगम्बर-श्वेताम्बर,13-20 के चक्कर,पंथवाद में बिखरती जा रही समितियां, मंदिर कमेटियों में बढ़ते विवाद, एकता की नींव पर प्रहारक आघात

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28 अगस्त 2022/ भाद्रपद शुक्ल एकम/चैनल महालक्ष्मी और सांध्य महालक्ष्मी/
हर कोई अपने समाज का ‘मोदी’ बनना चाहता है, चाहे वो गुण हो या नहीं, यह अर्थहीन है। महत्वकांक्षाओं की फलती-फूलती धरा पर एकता की जड़ें, अब तेजी से कमजोर हो रही हैं।

गत वर्ष दसलक्षण से तीन दिन पहले मुनि श्री प्रमाण सागर जी ने महासभा के नवनिर्वाचित अध्यक्ष को आशीर्वाद देते हुए कहा था कि 126 वर्ष पुरानी संस्था जो वर्तमान में सबसे बड़ी थी, अस्सी के दशक से सिकुड़ कर रह गई। कारणों का उन्होंने खुलासा नहीं किया क्योंकि तथ्य किसी से छिपे नहीं यह दुर्दशा केवल महासभा की नहीं, देश में 80 फीसदी समितियों, कमेटियों की है। कहीं-कहीं नेता दबंगता दिखायें, तो जरूर वो एक माला में बंधी रहती हैं, चाहे वो 40 साल तक अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महासभा रही हो या फिर 30 वर्षों से दिगम्बर जैन नैतिक शिक्षा समिति। ऐसा नेतृत्व निश्चित ही उस समिति को जोड़कर रखता है, पर उसके लिए नेतृत्व कुशलता जरूरी है।

हां, तो मुनि श्री प्रमाण सागर जी ने तो मुख से नहीं बोला पर महासभा के वर्तमान अध्यक्ष सब समझ गये, वे ही क्या, आज तो पूरा समाज जानता है। गजराज जी ने दो मिनट में पूरी हकीकत बयान कर दी कि महासभा को 13-20 के चक्कर से निकालना मेरी पहली जिम्मेदारी होगी और जहां विवाद होगा, हम मध्यस्थता रखेंगे।

आज से 30-40 बरस पहले विवाद था दिगम्बर और श्वेताम्बर में, दोनों ही अपनी श्रेष्ठतम पहचान बनाने के लिए आमने-सामने रहते और जमीनी हकीकत की बात करें तो निचले पायदान पर बैठा श्रावक तो आज एक होने को लगभग तैयार है, जिसका एक जीवंत उदाहरण है 18 दिवसीय पयुर्षण की शुरूआत। दो साल पहले तक 8-10 करने वाले अब 18 पर तो आ गये हैं। पर हम में से कुछ लोग अपनी कुंठा-नाक के लिये ऊपरी मंजिल में विराजमान हमारे संतों के कान भरने से नहीं चूकते और वही से फिर तू तू-मैं मैं की एक शुरूआत होती है, जिसकी धमक नीचे तक जाती है।

30-40 साल पहले का माहौल, अब अपने-अपने घर में दीवारें खड़ी करने में पांच-दस बरस से लगा है। कट्टरता के नाम पर पंथवाद की फसल खड़ी हो चुकी है। चैनल महालक्ष्मी परम्पराओं को तोड़ने का कड़ा विरोध करता है, तो किसी एक पंथ के कट्टरवादी, इतिहास की घटनायें दोहराते हैं कि इन पर क्यों आवाज नहीं उठाते? श्वेताम्बर समाज ‘गच्छों’ में मूर्ति-अमूर्तिक के विवादों में उलझा हुआ है,तो दिगम्बर समाज में वर्तमान साधुओं को आदर न करने से एक ‘कांजी’ नाम की परम्परा चला दी गई और जो इससे दूर रहे, वो 13-20 के फेर में पड़े हैं।

इसका कारण क्या है? अगर 60-70 साल पहले पहुंच जायें, तो आचार्य श्री शान्ति सागर जी ने किसी परम्परा का विरोध नहीं किया। उनके सामने जहां महिलायें अभिषेक करती रही, पर उन्होंने कहीं क ी परम्परा तोड़ने का कभी प्रयास नहीं किया, जहां जो परम्परा थी, उसी का पूरा आदर सम्मान किया। पर आज पंथवाद की कट्टरता कई संत चला रहे हैं और वर्तमान के श्रेष्ठतम संत आचार्य श्री विद्यासागर जी इस पर मौन धारण किये हैं, वो टूटती परम्पराओं पर कभी मुख नहीं खोलते। और हां, खोले भी क्यों, आज साधुओं के आगे पीछे घूमने वाले, उन संतों को अपनी बात मनमाने में भी नहीं चूकते और दूसरे की परम्परा तोड़ने में उन्हें ऐसी खुशी मिलती है, जैसे तालिबान ने अफगानिस्तान पर झण्डा फहरा दिया हो, पर अंदर की हकीकत को छिपाते हैं,यह पूरी दुनिया जानती है।

आज इसी 13-20 के चक्कर में, पद के लालच में, कुर्सी पर चिपकने और टांग खींचने में, मैं सही-तू गलत की लड़ाई में, हमारी सभी प्रमुख संस्थायें चाहे वो महासमिति हो, परिषद हो या अब महासभा हो, सभी के खण्ड हुए और तीर्थक्षेत्र कमेटी जैसी संस्था जो ऊपर से तो नहीं टूटी पर भीतर ढाई-ढाई साल का अध्यक्ष पद स्पष्ट रूप से 13-20 को रेखांकित करता है। अब तो इतनी अति हो गई है, तीर्थक्षेत्र कमेटी तीर्थों का संवर्धन करने की बजाय, तीर्थों की परम्पराओं के परिवर्तन में दिखने लगी है। जो अध्यक्ष आता है, अपनी परम्परा की फसल लहलहाता है।

सबसे नवीनतम विघटन ‘महासभा’ में हुआ। गजराज गंगवाल जी पुराने प्रतिष्ठित समाज सेवी हैं, आचार्य श्री सन्मति सागर जी के देवलोक गमन के बाद उन्होंने ही त्रिलोकतीर्थ जैसी बड़ी योजना को, कितनी सफलता से पूरा किया, यह किसी से छिपा नहीं है। उनकी इसी नेतृत्व कुशलता को देखते हुए आचार्य श्री ज्ञान सागर जी ने उन्हें ‘सराक ट्रस्ट’ की जिम्मेदारी भी दी। वही जमनालाल हपावत ने पिछले कुछ वर्षों में अपने कार्यों से पूरे समाज में लोहा मनवा लिया। पर 13-20 और जैनों के एक विशेष वर्ग ‘खंडेलवाल’ के नाम पर इस महासभा का भी विभाजन हो गया।

आज हाथ की बंद मुट्ठी खुली ही नहीं, हर अगुंली अलग-अलग कार्य करने को आतुर है, हथेली से जुड़ी अंगुलियां हमेशा संतुलित रूप से, सही दिशा में, सही समय पर काम करती है, यह तो आप अपनी बंद मुट्ठी और उससे जुड़ी अंगुलियों की कार्यशैली से ही समझ सकते हैं, तो क्या वे अलग-अलग रहकर के सब कार्य कर पायेंगी? नहीं ना। बस यही स्थिती हमारी बिखरती संस्थाओं की है, जो हमारी एकता की हर कोशिश पर, गहरा प्रहार कर संगठन के विचार को ही नेस्तानाबूत कर देती है।

यह पंथवाद की कट्टरता और परम्पराओं को तोड़कर अपनी नाक ऊंचा रखने की अभिलाषा जैन समाज के लिये बाहरी चोट ही नहीं, भीतरी घात है और अफसोस तो यह है कि संतो, विद्वानों, श्रावकों का एक अंग केवल इसी कथित परिवर्तन में लगा है और विरोध करने की किसी में हिम्मत नहीं। हिम्मत भी कैसे हो, उसकी बात पर अपनी आवाज बुंलद करने के लिये कट्टर परम्परवादी हर वक्त तैयार रहते हैं।

संतवाद -पंथवाद में बंटने की घंटी सामान्य श्रावकों के गले में बांधी जाती है। परन्तु उस घंटी की रस्सी, कमेटी सस्थाओं के हाथ में रहती है, जो संतों के बल से समय-समय पर खींचकर विघटन की खाई को गहरा करने में कोई कसर नहीं छोड़ती।

आज तो बड़ी-बड़ी कही जाने वाली समितियां ही नहीं टूट रही, शहर-शहर के मंदिरों में भी विघटन, कुर्सी खींचातान, गुटबाजी उभर कर सामने दिखने लगी है, ऐसे विवादों की संख्या अब दहाई का अंक पार कर तीन अंकों में पहुंच चुकी है। जल्द नाम, कुर्सी, पद की अभिलाषा जोर पकड़ती है। हर कोई अपने समाज का ‘मोदी’ बनना चाहता है, चाहे वो गुण हो या नहीं, यह अर्थहीन है। महत्वकांक्षाओं की फलती-फूलती धरा पर एकता की जड़ें, अब तेजी से कमजोर हो रही हैं।

गिरानी होगी पंथवाद संतवाद की दीवारें
बिना श्रावक रूपी र्इंट के पंथवाद-संतवाद की दीवारें खड़ी नहीं हो सकती, उसको बनाने वाले मिस्त्री चाहे कोई भी संत हो या कमेटी, पंथवाद रूपी ईंटों का अभिषेक रूपी सीमेंट से जोड़ा जाता है और वह दीवार देखकर फिर मियां मिट्ठू बनने के लिये सोशल मीडिया रूपी ‘एके-56’ का इस्तेमाल किया जाता है।
इसका बढ़ा कारण है बेलगाम होता, दिशाहीन समाज। नेतृत्वहीनता चाहे वो ऊपर संत संघों में हो, या फिर बीच के विद्वत वर्ग में या धरा पर श्रावक समाज में। हमें दूसरे का नेतृत्व स्वीकार्य नहीं है और अपनी बाजुओं में इतना दम भी नहीं कि तीन टांग वाली कुर्सी पर बैठ सकें। इस चक्रव्यूह से बाहर निकलना ही होगा, पर उसके लिये अभिमन्यू बनकर प्रवेश कौन करे, क्योंकि निकलना आसान नहीं।

यह कलम भी आपको सही राह दिखाने में असक्षम है और हम उसी, कलुषता, कटुता की दीवारों के बीच खड़े हैं, जहां पहले थे, अब तो उस पर रंग रोगन करके चमकाने वाले भी अपना काम कर रहे हैं।
(शरद जैन, संपादक)