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Home सामाजिक SOCIAL समान नागरिक संहिता कानून बनाना वैसे तो अच्छा है, पर दिगंबर जैन...
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समान नागरिक संहिता कानून बनाना वैसे तो अच्छा है, पर दिगंबर जैन समाज के लिए सबसे बड़ा घातक सिद्ध न हो जाये , इस बारे में मिलकर आवाज उठाने की बहुत बड़ी जरूरत है

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Channel Mahalaxmi
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June 29, 2023
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    29 जून 2023/ आषाढ़ शुक्ल एकादशी /चैनल महालक्ष्मी और सांध्य महालक्ष्मी/ EXCLUSIVE/शरद जैन
    समान नागरिक संहिता यानी सभी धर्मों के लिए एक ही कानून. अभी होता ये है कि हर धर्म का अपना अलग कानून है और वो उसी हिसाब से चलता है. – हिंदुओं के लिए अपना अलग कानून है, जिसमें शादी, तलाक और संपत्तियों से जुड़ी बातें हैं. मुस्लिमों का अलग पर्सनल लॉ है और ईसाइयों को अपना पर्सनल लॉ

    दूसरे शब्दों में कहें तो समान नागरिक संहिता का मतलब है कि पूरे देश के लिए एक समान कानून के साथ ही सभी धार्मिक समुदायों के लिये विवाह, तलाक, विरासत, गोद लेने के नियम एक ही होंगे. संविधान के अनुच्छेद-44 में सभी नागरिकों के लिए समान कानून लागू करने की बात कही गई है.

    सभी भारतीयों के बीच में, धार्मिक आधार पर कोई भेदभाव ना हो, इसके लिए वर्तमान केंद्र सरकार कॉमन सिविल कोड यानी समान नागरिक संहिता कानून की व्यवस्था पर फिर पहल करने लगी है। वैसे समान नागरिक संहिता का उल्लेख भारतीय संविधान के भाग 4 के अनुच्छेद 44 में भी है। इस बारे में सर्वोच्च न्यायालय भी कई बार केंद्र सरकार द्वारा उसके विचार जानने की बात कह चुका है।
    मोदी सरकार के ही कार्यकाल में गठित 21वां विधि आयोग साफ कह चुका था कि समान नागरिक संहिता की न तो जरूरत है और ना ही वह वांछनीय है। इस स्पष्ट टिप्पणी के बाद भी अगर 22वां आयोग इस विषय को प्राथमिकता दे रहा है तो समझा जा सकता है कि इसमें आयोग से ज्यादा केन्द्रीय विधि एवं न्याय मंत्रालय की रुचि है।

    सवाल यह उठता है कि क्या इतनी विविधताओं वाले भारत देश में समान नागरिक संहिता व्यवहारिक है? अगर व्यवहारिक होती तो संविधान सभा इस मुद्दे को नीति-निर्देशक तत्वों में नहीं डालती? अगर इतना आसान होता तो धारा 370 के सफाए से पहले ही देश में यह कानून आ जाता।

    संविधान के अनुच्छेद 25 से लेकर 28 तक भारत के नागरिकों को न केवल धार्मिक स्वतंतत्रता की अपितु, धार्मिक रीति-रिवाजों की स्वतंत्रता की गारंटी भी देते हैं। वैयक्तिक कानून भी धार्मिक रीति-रिवाजों में ही आते हैं। संविधान देश की 7 सौ से अधिक जनजातियों के प्रथागत् कानूनों को मान्यता देने के साथ ही उनके रीति-रिवाजों को मानने की गारंटी भी देता है, इसलिए अनुसूची-6 के क्षेत्रों में स्वायत्तशासी जिलों में उन जनजातीय परम्परागत पंचायतों को मान्यता दी गई है जिन्हें थोड़े न्यायिक अधिकार भी प्राप्त हैं, इसलिए वहां संविधान के 73वें और 74वें संशोधन लागू नहीं हो सके। जनजातियों में बहुपति और बहुपत्नी प्रथा अब भी चलती है।

    वैसे मोटे तौर पर देखा जाए तो आज विभिन्न रूप में हर धर्म के अलग-अलग नियम है, उपनियम है, जैसे पारसी विवाह अधिनियम 1936, भारतीय ईसाई विवाह अधिनियम 1872, मुस्लिम महिला अधिनियम 1986, उससे पहले 1939 ,शरीयत अधिनियम 1937, हिंदू विवाह अधिनियम 1955, हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956, काजी अधिनियम 1880, इस तरह अनेक पर्सनल लॉ अलग-अलग धर्मों के बने हैं। जैन धर्म में अपनी मान्यताओं के लिए अलग से कोई अधिनियम नहीं है। इसलिए बार-बार इसको अपने-अपने रूप से हर कोई ढकेलता रहा है और वही जैन समाज के लिए अब तक सबसे बड़ी त्रासदी रही है। चैनल महालक्ष्मी की निजी राय के अनुसार, दिगंबर जैन समाज इस समान नागरिकता संहिता को समर्थन जरुर करेगा, पर इसमें कुछ बड़े सवालिया निशान के साथ। पहले भी जैन समाज मयूर पिछी पर सरकार का रवैया देख चुका है।

    ऐसे में हर कदम पर ध्यान देने की आवश्यकता है या कहे हर कदम फूंक-फूंक कर रखना होगा।
    अधिनियम का समर्थन करते हुए दिगंबर जैन समाज के लिए कुछ चिंतित बिंदुओं में निम्न है:
    पहला, दिगंबर जैन साधु नग्न रहते हैं और यही उनकी पहचान है तीर्थंकरों से चल रही है परंपरा रूप में और पीछी, कमंडलु के साथ अगर समानता का दायरा बढ़ाया गया तो निश्चय ही कोई इस पर प्रश्न उठा सकता है । उनके इस रूप में वीहार करने पर विराम लगा सकता है , पाबंदी लग सकती हैं, जो निश्चय ही जैन समाज को स्वीकार्य नहीं होगी। दिगंबर जैन संतो के विहार पर कहीं कोई पाबंदी न लग जाए? अभी कुछ समय पहले इसी तरह गोवा में आचार्य श्री प्रणाम सागर जी पर प्राथमिकी दर्ज हो गई थी, कि यहां पर इस तरह विहार स्वीकार्य नहीं । इसी तरह कहीं हमारे दिगंबर संत, जो हर जगह विहार करते रहते हैं, उन पर कहीं , पाबंदी न लग जाए। कुछ तर्क दे सकते हैं कि नागा साधु भी तो है, जब वह कर सकते हैं , तो हम पर क्यों लगेगी । पर यह ध्यान रखना होगा कि जब कोई राजा या प्रशासक बहुत मजबूत होता है , तब वह किसी के लिए छूट दे दे, यह आसान हो जाता है । नागा साधु किसी विशेष मेले आदि में ही सामूहिक रूप से जाते हैं। क्या हमारे साधुओं का उसी तरह सामूहिक रूप से जाना संभव होगा? हमारे संत रोज जगह-जगह विहार करते हैं ,उन पर पाबंदी लगाने का कहीं यह कानून की आड़ तो नहीं ली जाएगी ? बहुत बड़ा प्रश्न है। नागा साधुओं को तो, कानून बनने के बाद भी कोई नहीं रोकेगा, पर दिगंबर साधुओं पर जगह-जगह सवाल उठ जाएंगे। आज गिरनार में कोर्ट द्वारा पूजा का अधिकार होने के बावजूद, जैन समाज बहुसंखक और प्रशासन का सहयोग न होने के कारण कुछ नहीं कर पा रहा और जब कोई कानून की आड़ मिलेगी, तब क्या होगा ? चिंतन की बात तो है। यह बहुत गंभीर विषय है ।
    दूसरा :क्या हमारे अल्पसंख्यक के रूप में मिले शिक्षा आदि के अधिकार अपने स्कूल, धर्म संबंधित अधिकार तो कहीं वंचित नहीं हो जाएंगे । सिर्फ यह कह देना कि यह कानून केवल गृहस्थों के विवाह, तलाक, संपत्ति, बटवारा, उत्तराधिकार, आदि जैसे मुद्दों तक सीमित रहेगा, इनसे संबंधित है, जो तैयार किया जा रहा है प्रारूप । परंतु जब प्रारूप बनेगा तो उसकी क्या दशा होगी, इसका भी आकलन करने के लिए हमें अपनी आवाज उठानी ही चाहिए।
    यही बहुत बड़ा कारण है कि समान नागरिक संहिता कानून लागू होने से इस पर कोई कदम ना उठ जाए और हम धार्मिक कानूनी अधिकारों से वंचित हो जाए , इसलिए चैनल महालक्ष्मी संपूर्ण दिगंबर जैन समाज की ओर से ऐसे कानून का पुरजोर विरोध करती है।

    ऐसे प्रस्ताव के लिए जैन समाज को न्यायमूर्ति श्रीमान ऋतुराज जी अवस्थी, सेवानिवृत्त, जो इस समय भारत विधि आयोग के अध्यक्ष है उनको उसी तरह पत्र लिखे जानी चाहिए, जिस तरह अभी जिंदा पशुओं के निर्यात पर ,एक अपील के साथ एक मुहिम के रूप में आगे बढ़े। निश्चय ही ऐसा कानून बनने पर, हमारे दिगंबर साधु की दिगंबर तो मुद्रा पर सवाल उठ सकते हैं , पाबंदियां लग सकती हैं , जब समान अधिकार की बात शुरू होने लगेगी। वैसे ही बार-बार हमारे चल अचल तीर्थ पर, किसी ना किसी बहाने , चोट की जाती रही है और हमें इस बारे में सावधान रहना होगा। चैनल महालक्ष्मी और सांध्य महालक्ष्मी सभी से अपील करता है कि इस बारे में अध्यक्ष, भारत विधि आयोग, लोक नायक भवन, खान मार्केट, नई दिल्ली को लगातार पत्र लिखें क्योंकि एक गलत कदम पूरे दिगंबर समाज के लिए भारी पड़ सकता है।

    समान नागरिक संहिता कैसे हस्तक्षेप करेगी। जनजातियों को छेड़ने का नतीजा मणिपुर में दिखाई दे रहा है। भारत में पारसियों की जनसंख्या एक लाख से भी बहुत कम है। भारत के चहुमुखी विकास में असाधारण योगदान देने वाले पारसियों की जनसंख्या एक लाख भी नहीं है। बिरादरी से बाहर शादी करने का मतलब वहां जायदाद से हाथ धोना है।

    ये सख्त नागरिक कानून इसलिए है ताकि इस मानव वंश का अतित्व बना रह सके। किसी खास वर्ग या समुदाय से जोर-जबरदस्ती करके भले ही वोटों का इजाफा हो जाएगा, लेकिन जनजातियों को छेड़ोगे तो अपना अस्तित्व बचाने के लिए कई खड़े हो सकते हैं।

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