मूल गुणों से च्युत होते ही साधु का साधुत्व स्वतः ही समाप्त हो जाता है, विष्टा युक्त सोने के थाल को कोई कैसे ग्रहण कर सकता है, हमें धर्म भीरु होना अभीष्ट है या पाप भीरु ?

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11 मई 2022/ बैसाख शुक्ल दशमी /चैनल महालक्ष्मीऔर सांध्य महालक्ष्मी/

यदि कोई हमेँ भोजन् के लिए सोने के थाल मे विष्ठा परोसें तो क्या हमें स्वीकार होगा, वह भोजन करना पसंद करेंगे, शायद कदापि नहीं।

आइये, अनुभव सागर जी के अजमेर मे घटित घटना क्रम के संदर्भ से इसे जोड़कर थोड़ा और गंभीरता से विचार् करते है।

मै अभी भीषण गर्मी के बावजूद, जयपुर- अजमेर और सागवाड़ा, सब जगह व्यक्तिगत घुम कर आया हूँ। अजमेर मे, जयपुर मे प्रबुद्ध लोगों के साथ बैठके ली है, आम और खास लोगोँ से चर्चा होने पर यह तथ्य ज्ञात हुआ कि अहमदाबाद सागवाड़ा और अजमेर, तीनों जगह समाज द्वारा उन्हें वैयावृति के दौरान बाल यौन उत्पीड़न की एक जैसी वारदातों का दोषी पाया।

सर्वविदित तथ्य है कि एक सौ घटनाओं मे कोई पाँच सात घटना ही उजागर हो पाती है बाकि तो ढकी ही रह जाती है। मतलब स्पष्ट है कि अनुभव सागर जी की यह आदत बन चुकी थी। वे आदतन मजबूर थे।

इंदौर में आचार्य विमद सागर जी का भी यही किस्सा था और घटना उजागर हो जाने के पश्चात् आत्म ग्लानि का शिकार हो, आत्महत्या जैसे निकृष्ट कृत्य से उस घटना क्रम का पटाक्षेप हुआ।

आचार्य शांतिसागर और आचार्य सुकुमाल नंदी, ये दोनों तो यौन उत्पीड़न के संगीन जुर्म मे जेल तक की यात्रा कर चुके है। वे भी आदतन मजबूरी वाले मामले थे। रिपित ऑफेंडर। सुकुमाल नंदी जी को तो मैंने व्यक्तिगत अनेक जगह संबोधन दिया है, चेताया है।

प्रश्न अनेक है। मानव कमजोरियों का पुतला कहा गया है। इन्द्र और देव तक के अनेक उदाहरण शास्त्रों मे भरे पड़े है जो काम संमोहन से अपने आप को नहीं बचा सके।

मुख्य प्रश्न यह नहीं है कि वे काम रोग के शिकार हुए, मुख्य चिंता वाला विषय तो यह है कि ऐसी स्थिति मे श्रावक और साधू समाज की, आचार्यों की प्रतिक्रिया क्या होनी चाहिए, कैसी होनी चाहिए और ऐसी स्थिति मे उनका क्या कर्तव्य है?

आइये, इस बिन्दु पर थोड़ा और गहराई से चिंतन करते है। साधु का वेश सोने के थाल के समान महान है, कीमती है, पूजनीय है, परंतु तभी तक जब तक वह अपनी मर्यादा मे है। मूल गुणों से च्युत होते ही उनका साधुत्व स्वतः ही समाप्त हो जाता है, विष्टा युक्त सोने के थाल को कोई कैसे ग्रहण कर सकता है, विचारणीय है।

पाप पाँच है और इनसे बचना ही सबका अभीष्ट होता है अपने अपने पद के अनुरूप। परंतु वर्तमान समय की विडंबना यह है कि पाप से किसी को कोई डर नहीं लगता, वह डरता है तो धर्म से डरता है। धर्म की कोई निंदा ना करे, इसका ध्यान रहता है परंतु पाप की कोई क्रिया ना करे, इस और उसकी तटस्थ बुद्धि हो जाती है।

कर्म बंध, मन वचन काय के साथ कृत कारित और अनुमोदन, किसी भी प्रकार से सहभागिता होने से एक समान होता है और इस और प्रायः हम किसी का ध्यान नहीं रहता।
विचार यह करना है कि हमेँ धर्मभीरु होना अभीष्ट है या पापभीरु।

अजमेर की घटना के संदर्भ मे विचारणीय यह है कि महाव्रति स्वयं जब स्वीकार करते है कि कर्मोदय वशात उनसे गलत काम हुआ है परंतु समाज को इस बात की चिंता है कि इस घटना के उजागर होने से नगर मे जैन समाज और जैन साधु की छवि खराब होती है । उसे सिर्फ अपनी झूठी छवि की चिंता है, तथ्य उसके लिए गौण है। इसीको कहते है धर्मभीरु होना और पाप की अनुमोदना करना।

जैन दर्शन कर्म प्रधान दर्शन है। राजा हो या रंक, गरीब हो या अमीर, साधु हो या श्रावक, अणुव्रती हो या महाव्रती, फल सबको अपने कर्म के अनुसार एक समान ही मिलता है, कोई रियायत नहीं, कोई सिफारिश नहीं।

घटना उजागर हुई या नहीं हुई, त्रिलोकिनाथ के ज्ञान से कोई गोपनीय नहीं रहता, सब कुछ स्पष्ट झलकता है।

*विचार समाज को करना है कि उन्हें धर्मभीरु होना है या पापभीरु?
क्या उन्हें सोने के थाल मे विष्टा स्वीकार्य है?

डॉ चिरंजी लाल बगडा, संपादक दिशाबोध, कोलकाता
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