हमें एक दिन भोजन न मिले तो बिलबिला जायें… और वे 180 दिन के उपवास के बाद 219 दिन और भोजन के लिए इधर-उधर घूमते रहे… क्यों?

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07 मई 2024/ बैसाख कृष्ण चतुर्दशी /चैनल महालक्ष्मी और सांध्य महालक्ष्मी/शरद जैन /
बात यह पंचम काल की नहीं, तीसरे काल की है। श्री ऋषभनाथ महाराज ने नीलांजना के नृत्य करते, मरण को देख सारा राजपाट-वैभव-संसार का ऐश्वर्य, त्यागते हुए सब छोड़, दिगंबर वेष धार, पंचमुष्टि केशलोंच कर चैत्र कृष्ण नवमी को कायोत्सर्ग मुद्रा में तप धारण कर खड़े हो गये, साथ संकल्प कि 6 माह तक इसी मुद्रा में रहेंगे। कठोर तप करते-करते 6 माह पूरे होते भाद्रपद कृष्ण अष्टमी निकल गई, शरीर को तब भी न भूख की, न प्यास की पीड़ा थी। जहां आज हम एक अष्टमी या चतुर्दशी का उपवास करने में ही व्याकुल हो जाते हैं। वैसे आज भी ऐसे मुनिराज हैं जो 10 – 16 दिनों तक उपवास का क्रम करते हैं। तब श्री ऋषभनाथ महामुनिराज ने अपनी कायोत्सर्ग मुद्रा छोड़ आहार के लिए कदम बढ़ाये, क्यों बढ़ाये जब न भूख थी, न प्यास। फिर भी बढ़ाये कि अगर आज मैंने वो रीति का पुन: श्रावकों को स्मरण नहीं कराया, तो भविष्य में दिगंबर मुनिराज कैसे अपनी आगमानुसार चर्या का पालन कर सकेंगे।

विश्वास नहीं करेंगे, उन्हें 180 दिन के तप के बाद 218 दिन और जगह-जगह जाते-बढ़ने के बावजूद एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं मिला, जो दिगम्बर महामुनिराज का पड़गाहन करा सके, क्यों? ऐसा क्या था आप नहीं सोच सकते, पर यही सच है। 399वें दिन जब वे हस्तिनापुर राजमहल की ओर बढ़ रहे थे, तब उस रात्रि में एक स्वप्न से वहां के राजकुमार को पूर्व भव का स्मरण हो गया। जब राजकुमार श्रेयांस महारानी श्रीमति के रूप में महामुनिराज ऋषभनाथ जी के पूर्व भव में साथ थे, और जंगल में दो चारण ऋद्धिधारी मुनिराजों को आहार कराया था, जिन्होंने संकल्प लिया था कि आज का आहार जंगल में ही करेंगे। ऐसी कड़ी विधि आज भी अनेक संत लेकर चलते हैं।

बस तब वर्तमान में पहला आहार हुआ हस्तिनापुर में महामुनिराज का राजकुमार श्रेयांस द्वारा, वह दिन था बैसाख शुक्ल तृतीया। चक्रवर्ती भरत को जब मालूम चला कि उनका आहार वहां हुआ है, तो भागा-भागा पहुंचा कि कैसे करवाया, कौन-सी विधि थी। तब मुस्कुराते राजकुमार श्रेयांस ने बताया, जिसे ‘नवधाभक्ति’ कहा जाता है और वह दिन तब से ‘अक्षय तृतीया’ के नाम से लोकप्रिय हो गया। कारण उस दिन जो भोजन उस महल में बना, हजारों ने खाया पर, खत्म नहीं हुआ, अक्षय हो गया।

आज भी वही नवधा भक्ति से दिगंबर मुनिराज आहार ग्रहण करते हैं, जी हां, वो परम्परा लाखों-करोड़ों वर्षों से लगातार चलती आ रही है। जानते हैं आज वो नवधा भक्ति –
पहला – ‘पड़गाहन’
साधु को घर पर बुलाने के लिये दुनिया की यह एकमात्र अलौकिक, अनोखी विधि जो कहीं और नजर नहीं आती। आमतौर पर घर के बाहर पड़गाहन होता है, जब ज्यादा चौके हों, तो मंदिर या बड़ी जगह पर होता है। पड़गाहन के लिये खड़े होते हाथ में कलश, जो खाली न हो, श्रीफल रखें, हल्दी लोंग-चावल से या जल से भरा हो। बिना घबराहट के, शांत चित्त से मुनिराज के पास आते ही ये कहें – हे स्वामी! नमोस्तु, नमोस्तु, नमोस्तु, अत्र-अत्र-अत्र, तिष्ठ-तिष्ठ-तिष्ठ आहार जल शुद्ध है। (अर्थात् हे स्वामी नमन, यहां ठहरे, आहार-जल शुद्ध है। साधु की विधि मिलने पर पूरी तीन परिक्रमा णमोकार मंत्र बोलते पूरी करें। यह ध्यान रखें नीचे जीव, घास या गंदगी न हो और मुनिराज की परछाई पर पांव न पड़े। फिर सामने रुककर बोलिए – मन शुद्धि, वचन शुद्धि, काय शुद्धि, आहार-जल शुद्ध है, मम गृह/ चौके में प्रवेश कीजिए। फिर बाहर रखे जल से पैर धोकर चौके में प्रवेश करें।

दूसरा – ‘उच्चासन’ : चौके में उनके बैठने के लिये लकड़ी का पाटा लगा दें और उनसे कहें – हे स्वामिन! उच्चासन ग्रहण कीजिए।

तीसरा – पाद प्रक्षालन : अब भक्ति गीत गाते मुख्य श्रावक प्रासुक जल से मुनिराज के चरण पखारे। गंधोदक को माथे पर लगाकर उचित स्थान पर रख दें, ध्यान रहे नाली में नहीं डाले, पौधों में डालें। हाथ धो लें।

चौथा – पूजन : अष्ट द्रव्य की थाली लें और केवल मंत्रों के साथ ही पूजन करें। मुनि श्री का नाम या इसी संबोधन से पूजा कर सकते हैं :-
ऊँ ह्रीं श्री मुनिराज/ आचार्य / उपाध्याय… के साथ सभी मंत्र बोले और जैसे अंतिम अर्घ्य – ऊँ ह्रीं श्री पूज्य मुनिराज अनर्घ पद प्राप्ताय अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।

पांचवां – नमन : कई बार भूल जाते हैं, पूजन के बाद नमोस्तु गुरुवर, सिर झुकाकर आदर से नमन करें।

छठां-सातवां-आठवां-नवां: मन शुद्धि, वचन शुद्धि, काय शुद्धि आहार जल शुद्ध है। मुद्रा छोड़कर, अंजुलि बांधकर आहार ग्रहण करें। यह बोलकर पुन: नमोस्तु करें। निंदा नहीं, आवाज नहीं, शांत प्रसन्न चित्त, बिना टेंशन, निर्विकल्प, शुद्ध-मर्यादित साधना में वृद्धि वाला आहार दें। मौसम, स्वास्थ्य, अवस्था, प्रकृति के अनुकूल आहार हो।
कुछ विशेष –
मोबाइल साथ न हो, सिर ढककर रखें। नाक, कान, मुंह में अंगुली न डालें, जल्दबाजी ने करें। विवेक से शोधन करें। मुनिराज के हाथ से कुछ छुए नहीं। जमीन देखकर चलें। ग्रास नीचे न गिरे। कोई बर्तन नीचे न गिरे।
॰ आहार के बाद पाटा लगा दें। कुल्ला, मुख शुद्धि करवायें। आरती करें। कमण्डलु में प्रासुक जल भरें। वापस हर्षोल्लास के साथ जिनालय को जायें। सबको शेष सामग्री प्रसाद में दें, भोजन करें।