भूत-प्रेत, बेताल , निर्दयी ,भयानक उपसर्ग – क्रोधी की प्रताड़ना ,देव बना दानव, पर धन्य क्षमाशील ‘महामानव’

0
802

3 अगस्त 2022/ श्रावण शुक्ल छठ /चैनल महालक्ष्मी और सांध्य महालक्ष्मी

और फिर एक दिन ऐसे ही खड़गासन मुद्रा में पार्श्व महा मुनिराज घोर तप में लीन थे कि तभी आकाश मार्ग से गुजरता संवर ज्योतिष देव का विमान गुजरा। हां वही जो पिछले अपने भव में पारस प्रभु का नाना था और 10 भव पहले कमठ के रूप में क्रूर व्यसनी बड़ा भाई। देवों को अवधिज्ञान तो होता है ही, बस पूर्व भवों का बैर याद आने में देर नहीं लगी। इधर मन में वो पिछले चित्र उभरे, क्रोध उबलने लगा भीतर, नेत्रलाल, शरीर जलने लगा।

आज नहीं छोडूंगा बस क्रोध में सब कुछ भूल जाता हैं, उसके साथ भी यही हुआ, अवधिज्ञान इसमें नहीं चला कि इन्होंने पिछले भव में तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर लिया है, अपराजित है। पर बुद्धि कहां चली, भयानक उपसर्ग शुरु। उपसर्ग यानि दूसरे को बुरी तरह प्रताड़ित करने की भावना। काले-काले बादल नीचे आकर गरजने लगे, पानी की धारायें झरनों की तरह बरसने लगी, बिजलियां जैसे धरा पर चमकने लगी, हवा ने प्रचण्ड रूप अख्तियार कर लिया। वृक्ष डूब रहे, उखड़ रहे, पत्तों की तरह उड़ रहे, पर मेरु शिखर के समान वो तो उसी मुद्रा में लीन।

जब सामने वाला शांत रहकर, क्रोधी की प्रताड़ना को सहता रहता है, अंतर नहीं पड़ता, तो क्रोधी के नथुने फड़फड़ाने लगते हैं। संवर ने रूप बदला भयंकर हाथी बना, भूत-प्रेत, बेताल श्याम से भयावह शेर, मृतक खोपड़ी की माला, लाल भयंकर नेत्र, मुख से आग बरसती, निर्दयी ध्वनि, पर असर रंचमात्र नहीं, पत्थर बरस रहे, पर कोई उनको छू नहीं पाता
उधर अधोलोक में धरणेन्द्र का आसन कम्पायमान हुआ, वह पदमावती को लेकर तत्काल पहुंचा, ये वो ही नाग-नागिन थे। दोनों ने नमस्कार कर प्रदक्षिणा दी, उपसर्ग दूर करने के लिये धरणेन्द्र ने फण मंडप बना दिया, और अधिकांश पार्श्व प्रतिमायें उसी रूप में दिखती हैं और शिल्पकारों ने बनाई। आखिरकार क्रोधी, को भी हार माननी पड़ती है, चरणों में झुक गया, क्षमा मूर्त के चरणों क्रोध मूर्त छटपटा रही थी, जो नौ भव से करते आये, एक बार फिर क्षमा करो, सदा के लिये करो। क्षमाशील ने फिर उत्तम क्षमा का रूप तीन लोक के लिये पुन: दर्शित कर दिया। प्रभु सातवें गुणस्थान से धर्म ध्यान के बल पर नौवें, 10वें से 11वें को लांघकर 12वें गुणस्थान में जा पहुंचे। चैत्र कृष्ण चतुर्थी को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई, चारों घातिया कर्मों का, 63 कर्म प्रकृति का नाश करके।

केवलज्ञान उत्पन्न होते ही उनका शरीर धरा से 30 हजार फुट ऊपर उठ गया, स्वर्ग से नगाड़े बज उठे, कल्पवृक्षों से पुष्पवृष्टि शुरु हो गई, इन्द्र का सिंहासन कम्पायमान हुआ, तत्क्षण सिंहासन से उठ 7 कदम बढ़ा, अष्टांग नमस्कार किया। उसका एक रूप धरा पर बढ़ चला, कुबेर समोशरण की रचना करने लगा। सौधमेन्द्र के साथ ईशान, ज्योतिष, भवनवासी, व्यंतर देव भी चले, सबने मनाया इस धरा पर आकर के केवलज्ञान कल्याणक।