दिल्ली-6, धर्मपुरा चांदनी चौक में, 1965 की 23 सितम्बर को श्री कैलाश – श्रीमती समुंदरी देवी के आंगन में किलकारियां गूंजी, महिलाओं ने ढोलक बजाई और नीरज ने मुस्कराते हुए इस धरा पर जन्म लिया। दिल्ली विश्वविद्यालय से बी.काम के साथ लौकिक शिक्षा की ऊंचाई पूरी की, पर अलौकिक मार्ग के लिए शिक्षा हेतु कदम आगे बढ़ते गये।
मथुरा चौरासी, जबलपुर एवं इन्दौर के आश्रमों में जैन शास्त्रों का गहन अध्ययन जारी रखा, साथ ही कुरान, गुरु-ग्रंथ साहिब, गीता का भी अध्ययन कर सर्वधर्म स्वाध्याय-साधना की ओर अपने कदम बढ़ा दिये। निश्चित ही अलौकिकता, सभी धर्मों में समन्वय रखकर बढ़ती है।
जिस उम्र में संसारिक बंधन की चर्चा होती है, उस उम्र में 1991 में, वैराग्य का अंकुर फूट गया और सोनागिरि में नीरज को खिलाने वाले माली थे सम्मेद शिखरजी वाले, आचार्य विमल सागरजी और आशीर्वाद के रूप में कहे शब्द आज भी मस्तक पटल पर अंकित हैं। ‘तेरा मरण समाधिपूर्वक मुनि अवस्था में होगा और तेरे कार्य एक गौरवान्वित इतिहास के रूप में दोहराये जाएंगे।’
और फिर अंकुरित नीरज में धीरे-धीरे विचार और व्यवहार से मंथन शुरू हो कर वैराग्य खिलने लगा। तभी अहिच्छेत्र में मुनि श्री सौरभ सागरजी की मुनि मुद्रा, साधना, ज्ञान व आचरण की किरणों से नीरज में वैराग्य की कली का मुखरित होना शुरू होने लगा।
28 अगस्त 1996 को महुआ जी में, आचार्य श्री विद्यासागरजी के दर्शन का सौभाग्य मिला। गुरुवर की पिच्छी मस्तक को स्पर्श कर रही थी और चार शब्द होठों से खिले –
‘तेरा भविष्य उज्ज्वल है।’ तब गुरुवर ने 4-5 वर्ष, व्रत क्रम जारी करके आगे बढ़ने को कहा। पर बचपन से हर कार्य को तरीके से और जल्द करने की धुन को देख उन्होंने सामायिक के बाद बताने को कहा और तत्पश्चात् पुन: मंगल आशीर्वाद के साथ आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत प्रदान किया।
एक साल और बीतने को था कि अगस्त 1997 में पहली बार, आचार्य श्री विद्याभूषण सन्मति सागरजी के दर्शन किये और उनसे अपने मन की बात कह दी कि मेरे भाव आचार्य श्री विद्यासागरजी से दीक्षा लेने के हैं। बस अगले क्षण महाराज ने नीरज के दायें हाथ की रेखायें देखीं और मानो भविष्यवाणी कर दी –
‘तुम कहीं भी जाओ, पर तुम्हारी दीक्षा मेरे द्वारा ही होगी। हां, तो तुम अपने भावों को पूरा करो, विद्यासागरजी से दीक्षा लेने जाओ, पर मेरे दरवाजे तुम्हारे लिए सदा के लिये खुले हैं।’
सन् 2001 की शुरूआती जनवरी में ऊनी वस्त्र व बिस्तर का त्याग कर, चटाई पर विश्राम और चार वस्त्र का नियम लिया। आगे बढ़ते हुए नवम्बर 2002 में गृह त्याग किया। परिजनों ने न रोका, न टोका, जैसे उन्हें पूत के पांव पालने में ही दिख गये थे। अगले ही वर्ष पहुंच गये, आचार्य श्री पुष्पदंत जी के पास, मुम्बई के गुलालवाड़ी में, धर्म अध्ययन हेतु, जिसकी प्रेरणा मुनि श्री सौरभ सागरजी ने दी थी। और उसके बाद नीमच (म.प्र.) में मुनि श्री प्रार्थना सागरजी ने जब आपका पहला केशलोंच किया, तो संकेत मिल गये कि अलौकिक मार्ग पर कदम बढ़ चुके हैं। और फिर उनके तथा मुनि प्रार्थना सागरजी के साथ सितम्बर 2003 में वहीं आयोजित दस दिवसीय श्रावक संस्कार शिविर में जब प्रवचन किये, तो हर कोई सुनकर गदगद हो गया, ये पहले प्रवचन है, यह कोई स्वप्न में भी नहीं सोच सकता था। फिर मन में क्या भाव आया कि आचार्य श्री विद्यासागरजी की ओर बढ़ते कदम, जून 2005 में नोएडा, से. 50 के मंदिर शिलान्यास में पहुंच गये और वहीं आचार्य श्री विद्याभूषण सन्मति सागरजी से दीक्षा हेतु श्रीफल समर्पित कर दिया।
तब एक तरफ दिल्ली के लाल मंदिर में आचार्य श्री मेरुभूषण जी महाराज गिरनारजी बचाओ आंदोलन में अन्न-जल त्याग कर बैठे थे। जो तार आज गुरु भ्राता के, गुरु-शिष्य के रुप में वो तार अब आगरा में जुड़ रहे हैं, उसकी पहली गांठ तो तब ही जुड़ गई थी, जब आपने इनसे प्रेरणा लेकर इन्दौर में गिरनारजी की 51 फुट ऊंची, 100 फुट लम्बी तथा 50 फुट चौड़ी प्रतिकृति बनवाई तथा एक महीने के लिए अन्य त्याग किया। पूरे इन्दौर में क्रान्ति-सी ला दी और उस प्रतिकृति को देखने दो लाख से ज्यादा लोग पहुंचे।
और फिर आ गई 2006 का श्री महावीर जन्म कल्याणक महोत्सव। हां, वो दिन था 11 अप्रैल 2006 और घड़ी की सुईयां 1.11 बजे का समय दिखा रही थी। त्रिलोकतीर्थ, बड़ागांव में सामने होनहार नीरज के ‘तेज’ निखरती काया को देख गुरुवर श्री विद्याभूषण सन्मति सागरजी के खुशी के आंसू छलक पड़े और नये जन्म के साथ नाम दिया ‘अतिवीर’ और मुख से निकला –
‘ऐसी दीक्षा न मैंने आज तक दी है, न कभी देखी है।’
और शुरू हो गया एक नया अध्याय, युवाओं को, बच्चों को पाश्चात्य संस्कृति से लौटाकर सरलता से धर्म से जोड़ना शुरू किया, जैन यूथ काउन्सिल के रूप में। आपका उद्देश्य स्पष्ट हो गया, युवा वर्ग में जागृति लाना व समाज में रूढ़िवादी बुराईयों को दूर कर, संगठित करना।
04 अक्टूबर 2009 को सीबीडी ग्राउंड, ऋषभ विहार में जब आपके एलाचार्य पद आरोहण के लिये 15 हजार श्रावक जुड़े और पूरे पण्डाल में एकदम शांति और ऊपर से इन्द्र द्वारा छनकती बूंदों से जो वातावरण बना, वह शायद दीक्षादि कार्यक्रम के समय दिल्ली ने पहले नहीं देखा था, और तब आपके संस्कार करते हुए आचार्य सन्मति सागरजी ने संकेत कर दिया कि
मैंने अपना भविष्य आज ढूंढ लिया है।
याद है आज भी, जब 2010 में पंचम दीक्षा के अवसर पर, परेड ग्राउंड लालकिले के सामने समाज के समक्ष आपने संकल्प लिया कि भविष्य में अपनी दीक्षा व जन्म जयंती का आयोजन नहीं करेंगे। समाज के समक्ष यह संकल्प साधु संघों को इस दिशा में प्रेरित करने के लिये आज भी उतना ही महत्वपूर्ण है, जब हम तीर्थंकरों के कल्याणकों की बजाय संतों के जन्म और दीक्षा दिवस मनाने की होड़ करते हैं।
समाज में मौन की सार्थकता को बयान करने के लिये बैंक एन्क्लेव (दिल्ली) में जनवरी-फरवरी 2011 में 1008 घंटे की अखण्ड मौन साधना कर मानों स्वयं में नई ऊर्जा का संचार किया।
आपने विभिन्न प्रसंगों पर धार्मिक चर्चाएं, कार्यक्रमों में संयुक्त प्रवचनों की शुरूआत कर, सामाजिक एकता पर बल दिया और इसकी शुरूआत मार्च 2012 में सूर्यनगर (उ.प्र.) में 3 आचार्य संघों के 19 साधुओं का एक साथ प्रवास व प्रवचन श्रृंखला से की।
समाज में धर्म व व्रतों के प्रति जागरूकता के लिए पर्युषण पर्व 2012 में 10 व्रत करने वाले 1300 महानुभावों को 9-13 फरवरी 2013 तक श्री सम्मेदशिखरजी की पूर्णतया नि:शुल्क तीर्थवंदना करवाई।
जुलाई 2013 में, श्रमण आचार्य श्री शिवमुनि ससंघ ने अशोक विहार-1 में दि. जैन मंदिर में आपकी आहार चर्या देखी और उसके बाद आपको मयूर पिच्छिका भेट कर गदगद होकर बोले कि
जीवन में पहली बार किसी दिगम्बर संत की आहार चर्या देखी है।
वैसे तो मन्दिरों के पंचकल्याणक, नवीनीकरण, त्यागी भवन, धर्मशाला निर्माण के भी कई उल्लेखनीय कार्य हैं, पर इनके साथ दिल्ली में किसी जैन कार्यक्रम में सवा लाख लोगों का इकट्ठा करने का जैन महाकुम्भ के रूप में दिल्ली के एक कोने में नजफगढ़ में जो कार्यक्रम किया, जिसने कई किमी तक जाम लगा दिया, ऐसे आयोजन से संकेत दे दिया, कि समाज को एक जगह इकट्ठा करने का जज्बा व काबलियत आपमें कूट-कूट कर भरी है।
अपने गुरुवर आचार्य श्री सन्मति सागरजी की प्रेरणा से बने त्रिलोक तीर्थ पर 31 दिसम्बर 2017 को 25 हजार लोगों का वहां एकत्रित कर, अपनी कुशल प्रशासनिक बुद्धिमत्ता को समाज को दिखा कर मानो हतप्रभ कर दिया।
ऐतिहासिक लाल मंदिर में फरवरी 2018 में आठ दिनों तक 800 इन्द्र-इन्द्राणियों को समयसार विधान में इकट्ठा बैठाकर, लाल मंदिर के प्रति भक्तों की घटती रुचि को, पुन: वापस यौवन में उतार दिया। कलम उल्लेखनीय कार्यों को इसी तरह लिखती रही तो पत्रिका के पन्ने कम पड़ जाएंगे, पर अब 20 दिसम्बर को, श्री अतिवीरजी मुनिराज एलाचार्य नहीं, आचार्य पद पर आरोहित हो जाएंगे, ऐसे में आपसे जैन समाज अनेक उम्मीदें लगाये बैठा है, जिनमें से कुछ निम्न हैं:-
1. दिल्ली से फिर उठे राजनीतिक-सामजिक हलचल की गूंज
आचार्य श्री विद्यानंद जी के बाद दिल्ली से उठने वाली जैन समाज की आवाज एकाएक हल्की पड़ गई है। आज हमारी सीमा स्थानीय पार्षद, विधायक, सांसद तक ही सिमट कर रह गई है। दिल्ली से उठी गूंज की धमक पूरे देश में पहुंचती थी, आशा है, आपके नेतृत्व का, सबको जीत लेने वाले गुण का लाभ, पूरे जैन समाज को मिलेगा और समाज व राजनीतिक गलियारों में जैनों की आवाज, पहले की तरह गरिमा के साथ सुनी जा सकेगी।
2. संतवाद-पंथवाद से फिर जैनवाद-एकजुटता का शंखनाद
बिखरते बंटते जा रहे जैन समाज के मोतियों को एक माला में पिरोने की कुशलता ‘दिल्ली-6’ वालों के खून में होती है, ऐसा देखा और माना भी है। पुन: हम संतवाद-पंथवाद से हटकर एक जैन ध्वज तले आ सकेंगे।
3. बच्चों व युवाओं को धर्म से जोड़ना
‘जेवाईसी’ के साथ में आपका यह गुण तो 12-14 साल पहले ही देख चुके हैं, पर अब इसे और व्यापकता से सामने लाना होगा। सरल, विनोद स्वभावी, मिलनसार गुण से, पुन: पाश्चात्य सभ्यता की ओर भटकते बच्चों व युवाओं को मंदिर से जोड़ना भी समाज की उम्मीद होगी।
4. दीक्षा परम्परा में वृद्धि
आचार्य बनने के बाद दीक्षा देना व संघ का विस्तार, जैसे कर्तव्य, आप तुरंत कर संघ के साथ विहार कर, जनमानस में आचार्य परम्परा को गौरवान्वित रखेंगे।
5. साधु-श्रावक समाज की समस्याओं के लिये हर समय तैयार
जब जैन साधु-श्रावक-तीर्थ या संस्कृति के प्रति कोई समस्या आई, सबकी नजरें आचार्य श्री विद्यानंदजी की ओर उठ जाती थी। आशा है, अब आप कुशल नेतृत्व व प्रशासनिक क्षमता से, उसका निदान करने में आगे आएंगें। आपके चरणों में बारम्बार नमन, और हृदय से विनयांजलि, इन आशाओं के साथ, कि आपके आचार्य पद पर होने के साथ, उत्तर भारत में एक नया सूर्योदय होगा जैन समाज की एकता का व नई ऊंचाई पर दमकने का।
– सान्ध्य महालक्ष्मी एवं चैनल महालक्ष्मी परिवार
शरद जैन / 18 दिसंबर 2020